वह पेड़ मोड़ पर खड़ा
रहता था,
आते-जाते, हर राही
को तांकता था,
पर कभी कुछ न किसी
से कहता था |
वर्षा-धूप से बचाया,
उसने जाने कितनों को,
ना कभी जाति पूछी
किसी की उसने,
ना कभी रंग-भेद से
किसी को छाया दी |
कई लोग हंसकर देखते
थे उसकी ओर,
जो कोई ज़ोर से हथेली
मारकर अपनी उलझन बताता,
ऋषि-मुनि की भाँती,
वह पेड़ सभी को अपनाता |
एक दिन रोज़ की तरह,
मैं मोड़ पर पहुंचा,
गर्मी के प्रचंड
शोले बदन को जला रहे थे,
उस दिन मुझे बचाने
वह पेड़ वहाँ नहीं था |
थोड़ी दूर पर ही
दूसरा पेड़ मुझे दिख गया,
मैं जाकर उसकी शीतल
छाँव में खड़ा हो गया,
गर्मी से आराम मिला,
और मैं खुश हो गया |
मैं खड़ा ही था कि
मुझे सिसकियाँ सुनाई दी,
वह पेड़ रो रहा था,
फिर भी निरंतर छाया दे रहा था,
आंसू उसके अपने लिए
नहीं, हमारे लिए ही थे |
उस पेड़ ने मुझे
बताया कि कल मुझे भी काट दिया जाएगा,
दुःख अपना नहीं है,
मगर तुम्हें छाया कौन देगा ?
कौन रोकेगा सूखे को
? बढ़ती हुई इस गर्मी को ?
कौन वर्षा कराएगा?
कौन फल-फूल देगा तुम्हें ?
तुम तो अपना वंश बढ़ा
रहे हो मानव, मगर,
हमें निर्वंश क्यों
मार रहे हो ?
सुन कर मेरा दिल
पसीज गया,
मगर करूँ क्या? किसे
समझाऊं? और कैसे ?
सभी अपनी धुन में
मग्न हैं, अपनी ही दौड़ में ब्यस्त हैं,
ये मुझे अकेले को ही
नहीं, सभी को सोचना होगा,
जो-जो इस भू-मंडल पर
है, अब सभी को प्रण लेना होगा,
ये श्रृष्टि हमें
बचानी है, ये धरती नयी बनानी है |
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