Tuesday 12 April 2016

सच्चा पथिक

सच्चा पथिक
कर्म को जो पहचान ले, है योगी सच्चा वही,
पल पल चले, ठहरे नहीं, है बटोही सच्चा वही|
जो लक्ष्य को साधे चले, अवरोध से भी ना रुके,
जीवन पथ पर, हे मनुज! है पथिक सच्चा वही||

ग्रीष्म में मुरझाये जो, शरद में गल जाय जो,
मझधार देख मुड़ता रहे, वह बटोही सच्चा नहीं |
चलते घिरे, फिर भी उठे, है बटोही सच्चा वही,
संघर्ष से जो बढ़ रहा, है पथिक सच्चा वही ||

वार्णित चाहे हो ना हो, सुन बटोही यह गाथा तेरी,
चलता ही चल, निरंतर तू चल, ठहरना तुझको है नहीं |
किवदंतियों में हो सुसज्जित, चाहे अतीत में धूमिल सही,
संघर्ष से जो बढ़ रहा, है पथिक सच्चा वही ||

मिले गिरी तू, पार कर, तू पार चल, चाहे सरित मिले,
चलता ही चल तू हे मनुज! चाहे लक्ष्य मिले या ना मिले,
जीवन है निरंतर ही चलना, चाहे कंटक चुभे या कुसुम खिले,
श्रृष्टि देख होगी यह हर्षित, पद-चिन्ह जब तेरे जग को मिले ||

चलते घिरे, फिर भी उठे, है बटोही सच्चा वही,
संघर्ष से जो बढ़ रहा, है पथिक सच्चा वही ||


Saturday 6 February 2016

जल है तो जीवन है

जल है तो जीवन है
घट-घट पर्वत के ह्रदय से, कलरव बहती निर्मल धारा,
शिशिर, ग्रीष्म,बसंत, हेमंत, हर ऋतु सुनाती अनुराग निराला |
उपनिषद, पुराणों में वार्णित है, जल जीवन ही उजियारा,
घट-घट पर्वत के ह्रदय से, कलरव बहती निर्मल धारा ||

लता, पौधे, वृक्ष पनपते इससे, बरसे तो अमृत ये बन जाता,
तन का मैला, मन का मैला, पल में सबको स्वच्छ बनाता |
तृष्णा से व्याकुल हो मानुष, या हो चिंतित कृषक बेचारा,
हर्षित हो जाते हैं सारे, मिल जाय तो जल- धारा ||

झरना बनकर मन मोह लेता, मुकुट ये पर्वत का कहलाता,
सरिता बनकर सींचे धरती, पूजे इसको अन्नदाता |
कण-कण, पग-पग जल ही जल है, दरिया से सागर सारा,
श्रृंगार धरा का जल से ही है, जल ही है जीवन धारा ||

जनम से मरण तक इसका, प्राणी-प्राणी से अदभुत नाता,
कहीं बाढ़ त्रस्त है कोई, कहीं बिन इसके भूतल सारा तप जाता |
कहीं बरसता बेसुध होकर, कहीं कोई इसको तरस जाता,
जीवन का ये काल चक्र है, बिन जल यह ना चल पाता ||

जल को बचाना-जीवन बचाना, हो अब यह दृढ़ संकल्प हमारा,
व्यर्थ ना जाय बूँद एक भी, हो जाय जीवन समर्पित सारा |
जल है तो ही कल है, हो अब यह स्वाभिमान हमारा,
व्यर्थ ना जाय बूँद एक भी, हो जाय जीवन समर्पित सारा ||

उपनिषद, पुराणों में वार्णित है, जल जीवन ही उजियारा,
घट-घट पर्वत के ह्रदय से, कलरव बहती निर्मल धारा ||

  

Sunday 28 June 2015

मैं प्रकृति हूँ

मैं प्रकृति हूँ !
मैं तो आँचल बनकर आई थी इस ब्रह्माण्ड पर,
मगर बुद्धिजीवियों ने मुझे विभाजित कर दिया |

क्या कमी रह गई थी मेरी ममता में?
सब कुछ तो अर्पित कर दिया है मैंने अपना !
कहीं धाराओं में बहती हूँ नदी बनकर, तो कहीं खड़ी हूँ पर्वत बनाकर,
कहीं छाया बिखेरती हूँ वृक्ष बनकर, तो कहीं चुभन भी देती हूँ कांटे बनकर,
अपनी छाती फाड़ कर भूख मिटाती हूँ सबकी, तो महकती हूँ कहीं पुष्प बनकर |
क्या कमी है मेरी ममता मे?
मैं तो प्रकृति हूँ |

मैं प्रकृति हूँ!
नित्य दिन अन्धकार मिटाती हूँ सुबह-सुबह उठकर,
सूर्य की प्रचंड किरणों को मैं ही तो बदलती हूँ ऋतु बनकर,
वायु बनकर साँसों में दौड़ती हूँ, पल पल साथ रहती हूँ दिन-रात बनकर,
क्या कमी है मेरी ममता मे?
मैं तो प्रकृति हूँ |

मैं तो प्रकृति हूँ |
क्या कमी है मेरी ममता मे?
क्यों तुम कोसते हो मुझे ?
जब कभी भी बाढ़ आती है, या पर्वत खिसकते हैं कहीं?
कोसी जाती हूँ मैं, जब उठते हैं चक्रवात समुंदर में !
बादल बरसते हैं तब भी, नहीं बरसते तब भी !
कहीं सूरज नहीं उगता तब भी, कहीं बर्फ नहीं पिघलती तब भी !
आखिर क्यों कोसी जाती हूँ मैं?
क्या कमी रह गई मेरी ममता में ?

मैं प्रकृति हूँ!
कभी सोचा है मेरे बारे में?
बूढ़ी हो गई में, दुःख मुझे भी होता है,
कहीं ढूबा है एक सिरा मेरा पानी से, तो कहीं बंजर है आँचल मेरा,
दुःख मुझे भी होता है, फिर भी सता रहे हो तुम मुझे,
कहीं वृक्ष काटकर तो कहीं पर्वत गिराकर,
बाँध दी मेरी धारा, तुमने बाँध बनाकर,
कर दिया कहीं बंजर परमाणु से, खोद दिया मेरा सीना कहीं खदानों से,

मैं प्रकृति हूँ,
मुझे जिह्वा नहीं मिली की मैं अपना दुःख तुम्हें बता सकूँ!
फिर भी मैंने चेताया कई बार, की तुम भी मेरी पीड़ा समझ सको,
जब हिली धरा तो चेताया मैंने भूकंप बनकर, पानी पानी किया तो बताया बादल बनाकर,
कहीं दिया सन्देश अधिक हिमपात कराकर, तो कहीं किया सचेत चक्रवात बनकर,
मगर तुझसा नादान तो पशु ही नहीं है मानव , अनदेखा कर देता है प्रकृति का कहर बताकर |

मुझे नष्ट करके तू स्वयं नष्ट हो रहा है !
अपने स्वार्थ के लिए क्यों परलय ला रहा है !
मैं प्रकृति हूँ, मैं ही तुम हूँ , तुम ही मैं हूँ,
अब तो सचेत हो जाओ, हम दोनों अलग नहीं,
मैं प्रकृति हूँ, मैं ही तुम हूँ, तुम ही मैं हूँ,
मैं प्रकृति हूँ ||








Saturday 30 August 2014

वह पेड़

वह पेड़ मोड़ पर खड़ा रहता था,
आते-जाते, हर राही को तांकता था,
पर कभी कुछ न किसी से कहता था |

वर्षा-धूप से बचाया, उसने जाने कितनों को,
ना कभी जाति पूछी किसी की उसने,
ना कभी रंग-भेद से किसी को छाया दी |

कई लोग हंसकर देखते थे उसकी ओर,
जो कोई ज़ोर से हथेली मारकर अपनी उलझन बताता,
ऋषि-मुनि की भाँती, वह पेड़ सभी को अपनाता |

एक दिन रोज़ की तरह, मैं मोड़ पर पहुंचा,
गर्मी के प्रचंड शोले बदन को जला रहे थे,
उस दिन मुझे बचाने वह पेड़ वहाँ नहीं था |

थोड़ी दूर पर ही दूसरा पेड़ मुझे दिख गया,
मैं जाकर उसकी शीतल छाँव में खड़ा हो गया,
गर्मी से आराम मिला, और मैं खुश हो गया |

मैं खड़ा ही था कि मुझे सिसकियाँ सुनाई दी,
वह पेड़ रो रहा था, फिर भी निरंतर छाया दे रहा था,
आंसू उसके अपने लिए नहीं, हमारे लिए ही थे |

उस पेड़ ने मुझे बताया कि कल मुझे भी काट दिया जाएगा,
दुःख अपना नहीं है, मगर तुम्हें छाया कौन देगा ?
कौन रोकेगा सूखे को ? बढ़ती हुई इस गर्मी को ?
कौन वर्षा कराएगा? कौन फल-फूल देगा तुम्हें ?
तुम तो अपना वंश बढ़ा रहे हो मानव, मगर,
हमें निर्वंश क्यों मार रहे हो ?

सुन कर मेरा दिल पसीज गया,
मगर करूँ क्या? किसे समझाऊं? और कैसे ?
सभी अपनी धुन में मग्न हैं, अपनी ही दौड़ में ब्यस्त हैं,
ये मुझे अकेले को ही नहीं, सभी को सोचना होगा,
जो-जो इस भू-मंडल पर है, अब सभी को प्रण लेना होगा,
ये श्रृष्टि हमें बचानी है, ये धरती नयी बनानी है |

Friday 20 June 2014


                     छंद मेरे तेरे लिये

             तेरे लिए लिखे मैंने, छंद हैं ये छंद मेरे,
             नैनों को जो है भाती, वो सूरत जो तेरी है |
             जपती हैं सांसें अब दिन-रात माला तेरी,
             मन में जो मुस्काई, मूरत जो तेरी है |
             तेरे लिए लिखे मैंने, छंद हैं ये छंद मेरे,
             नैनो को जो है भाती, सूरत जो तेरी है |

ह्रदय में उमड़ती है, उमंग तेरे प्रेम की जो,
छेड़ती तराना है, ये कहती तरंग है |
तेरे लिए लिखे मैंने, छंद हैं ये छंद मेरे,
नैनों को जो है भाती, सूरत जो तेरी है |

             चलता हूँ राह में जो, तू है मेरे साथ-साथ,
             चलती है मेरे तू, डाले हाथों में हाथ है,
             न्रित्यांग्नी है ये शराब, या झूमता है पीने-वाला
             खबर किसी को नहीं है, कि किसमे क्या बात है
             ज़िन्दगी की राह में जो, मिल जाय तू अगर
             मेरी लिए यही श्रावण – यही बरसात है
             तेरे लिए लिखे मैंने, छंद हैं ये छंद मेरे,
             नैनों को जो है भाती, सूरत जो तेरी है |

कंठ मेरा-गीत तेरे, रूप तेरा-साया मेरा,
ह्रदय में धड़कती है, धड़कन तेरी सांस है
कह दूँ, कहेगा ये ज़माना एक दिन ये भी,
कर जाऊं कुछ ऐसा, ये भी इतिहास है
तेरे लिए लिखे मैंने, छंद हैं ये छंद मेरे,
नैनों को जो है भाती, सूरत जो तेरी है |

             गहराई देखो, इस सागर में समाई है जो,
             इसको तो रोकती, इक छोर से पाताल है |
             मन में उमड़ता है, प्रेम कितना गहरा है,
             इसकी गहराई का ना अम्बर ना पाताल है ||
             तेरे लिए लिखे मैंने, छंद हैं ये छंद मेरे,
             नैनों को जो है भाती, सूरत जो तेरी है |

     

Friday 6 June 2014

ऐ शीतल पवन

                                ऐ शीतल पवन
ऐ शीतल पवन, ले चल मुझे,
हमें तुमसे प्यार है, पुकारे कोई |
उमंग मनचली, क्यों बहका रही,
            धड़कन मेरी अब यही गा रही |
ऐ शीतल पवन, ले चल मुझे,
हमें तुमसे प्यार है, पुकारे कोई ||


तू छाया मेरी, मेरे साथ चल,
जिंदगानी अधूरी, इसे पूरी कर |
देखूं मैं अब जहां, आये तू ही नज़र,
हो रहा है यह क्या, मुझपे इश्क-ऐ-असर |
ऐ शीतल पवन, ले चल मुझे,
हमें तुमसे प्यार है, पुकारे कोई ||


लहलहाती धरा, चलती शीतल पवन,
रिश्ता ऐसे कोई, जैसे योगी-हवन |
आ रहा हूँ मैं, गा रहा हूँ अब,
तुझको ले जाऊँगा, कह रहा है ये मन |
ऐ शीतल पवन, ले चल मुझे,
हमें तुमसे प्यार है, पुकारे कोई ||



साथ जो तू मेरे, तो साथ दुनियाँ चले,
डरना क्यों फिर हमें, जो साथ प्यार चले |
हाथों में अब मेरे, हाथ तेरा रहे,
हँसते-गाते हुए,सफ़र यूं ही चले |
ऐ शीतल पवन, ले चल मुझे,
हमें तुमसे प्यार है, पुकारे कोई ||

Saturday 31 May 2014

कभी कोई-कभी कोई

कभी कोई-कभी कोई, दिल में तब, अब कोई,
कोई बैरन हवा थी वो, गई जगा उमंग सोई |
कभी इस पर, कभी उस पर, मचल जाता है ये यूँ ही,
दिल बगिया है बहारों का, इसमें कभी कोई-कभी कोई ||



घटायें पर्वतों की अब, उठती हैं, मेरे मन से,
झरने फूटते हैं, चाहतों के अब, मेरे मन से |
कोई पागल न कर दे अब, कहता हूँ अब तुमसे,
मेरी राहें ही हैं तुझ तक, यही मानूं मैं अब दिल से ||   

दिखें चेहरे अंखियों से, लगे अपना हर कोई,
कभी कोई-कभी कोई, दिल में तब, अब कोई ||